Friday, 26 June 2020

धूप का वो टुकड़ा सा




तुम धूप का वो टुकड़ा हो
जो हर रोज़ धुंध काटता हुआ मेरे आँगन को सेंका करता है,
कभी दूर, कभी पास, कभी चुभन, कभी आस,
मेरी परछाई को हर रोज़ बनते उठते गिरते डूबते देखा करता है


तुम धूप का वो टुकड़ा हो
जो काले घने बादलों के पीछे भी छुपकर बैठा मेरा इंतज़ार करता है,
जड़-चेतन, अधीर अधपका सा मनन, मनचले बूंदों की गीली आवारगी से भीगा सा मन
धूप, सात रंगों की चित्रकारी से भरता है


तुम धूप का वो टुकड़ा हो
जो सबमे बंट कर भी मेरे हिस्से का पूरा है
सबके पास हो उतना ही जितना मेरे पास
फिर भी कुछ अधूरा है?
क्या ही अच्छा होता जो बंद मुट्ठी में पसर जाते तुम!
रात के पुकारने पर जाते नहीं, मेरे ही साथ  ठहर जाते तुम


तुम धूप का वो टुकड़ा हो
अधूरा सा पर पूरा सा
गर्म सा पर नर्म सा
अधखिले एहसास सा
अनंत रत में सांस सा
गगन में व्याप्त पर मुझमे सिकुड़ा सा
तुम धूप का वो टुकड़ा सा

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1 comment:

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